खैरागढ़ के देवरी ग्राम पंचायत के आश्रित गांव सरकतराई में पानी के नाम पर बड़ा खेल हो गया। जनपद पंचायत निधि से पीने के पानी के लिए स्वीकृत रकम सीधे-सीधे निजी जमीन में बहा दी गई। सरकारी दस्तावेजों और ग्रामीणों की जुबान, दोनों में एक गहरी कहानी दबी है — घोटाले की कहानी।
पानी के नाम पर पहली चाल:
वर्ष 2022-23। गांव में पीने के पानी की समस्या हल करने के लिए जनपद निधि से ₹1 लाख 55 हजार स्वीकृत होते हैं। पंचायत में प्रस्ताव रखा गया — खसरा नंबर 258 पर बोर कराया जाएगा।
पंचायत में प्रस्ताव पारित हुआ कि खसरा नंबर 258 पर बोर कराया जाएगा। लेकिन जांच में पता चला कि यह खसरा नंबर असल में 258/1 और 258/2 में विभाजित है — लेकिन जब खुदाई हुई, तो बोर सूखा निकल आया। हैरानी तब बढ़ी जब जांच में पता चला कि यह जमीन शासकीय नहीं, बल्कि निजी थी।
ड्राई बोर के बाद दूसरी चाल:
यहां खेल खत्म नहीं हुआ। तत्कालीन सरपंच केजराराम साहू और सचिव कु.नाजनीन नियाजी ने ग्रामीणों की सहमति का हवाला देते हुए दूसरा बोर खसरा नंबर 318/2 पर करा दिया।
अब कहानी और दिलचस्प हो गई, क्योंकि ये जमीन किसी और की नहीं बल्कि तत्कालीन जनपद सदस्य मंजू धुर्वे की निजी संपत्ति थी। यानी सरकारी पैसे से दो-दो बार निजी जमीन पर बोर कराए गए।
“लिपिकीय त्रुटि” या जांच से बचने का जाल?
जब सवाल उठे, तो पंचायत सचिव कु.नाजनीन नियाजी ने सफाई दी —
“258 नंबर खसरा लिखना गलती थी। असल में बोर 250 नंबर पर हुआ है। ये सिर्फ लेखन में गलती है।”
लेकिन क्या वाकई ये केवल गलती थी? या सच को छुपाने की एक सुनियोजित रणनीति? स्थानीय लोग सवाल उठाते हैं कि अगर सच है तो फिर बोर खनन स्थल का निरीक्षण क्यों नहीं कराया गया?
कई सवाल अभी भी जिंदा:
• क्या सिर्फ “ग्रामीणों की सहमति” ही काफी थी सरकारी पैसे से निजी संपत्ति पर बोर करने के लिए?
• अगर खसरा नंबर में गलती थी, तो फिर भुगतान कैसे हुआ? साइट निरीक्षण क्यों नहीं हुआ?
• क्या जनपद और जिला स्तर के अधिकारियों ने आंखें मूंद लीं या वे भी इस खेल का हिस्सा थे?
अब आगे क्या?
ग्रामीणों की मांग है कि इस घोटाले की निष्पक्ष जांच हो। दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए।
सरकार की योजनाएं अगर इसी तरह निजी स्वार्थों की भेंट चढ़ती रहीं, तो गांव की प्यास कभी नहीं बुझेगी। अब देखना है कि प्रशासन इस प्यास का हल ढूंढता है या इस घोटाले को भी फाइलों में दफना देता है।
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(रिपोर्ट — लक्की भोंडेकर)
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